Thursday 28 April 2016

ग़ज़ल


 दिन का मुंह काला हो गया है
जब से मेरा चाँद खो गया है

ये कहकशां ये तारे ये आसमां
उसके जाते ही सब सो गया है

काग़ज़ पे नंगे पा चलते चलते
क़लम को मेरे घाव हो गया है

मैं था जो पहले हूँ अब भी वही
इस ज़माने को क्या हो गया है

शगल पूछते क्या हो असरार की
दिल से जां तक वीरां हो गया है


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