Sunday 18 January 2015

मेरे ग़ज़ल की हक़ीक़त

उस रु ए माहताब में रखा क्या है
कोई मक़नातिस है 
या कोई नाखुदा ए बादबान 
जो अपने इशारे से 
मेरे अशआर का रुख़ बदल देती है 
मेरे काग़ज़ पे उतार कर 
अपना वो चेहरा रख देती है 
और फिर उभर आते हैं 
कुछ शेर कुछ  नज़्म 
उसका  दीदार करने को मेरे सारे लफ्ज़ 
ज़हन से उत्तर आते हैं
पीले सरसों के फूलों में 
कहीं छिप जाने को 
या गूथ जाने किसी दीवान में 
कहीं किसी सफ़हे पे 
उनके सिर्फ एहसास ए आमद से 
मचलती है जो हलचल कहीं 
उसी शोर से मेरे ज़हन के शाख़ से 
टपकने लगते हैं अशआर  
जिसके ज़बां पे है तेरा नाम जानम 

असरारुल हक़ जीलानी
तारीख़: 18 जनवरी 2015

माहताब- चाँद  ,  मक़नातिस - चुम्बक,    नाखुदा - कश्ती चलाने वाला , 
दीवान- कविताओं का संग्रह , अशआर - कविताएं 

Saturday 17 January 2015

मेरा चाँद मुस्कुराने लगा है


तेरी याद का एक टुकड़ा 
पड़ा रहता है मेरी जेब में 
मेरी सूखी नज़्मों के साथ 
जब भी थक जाता हूँ 
या भूख परेशान करती है सफर में 
तेरी याद के टुकड़े को 
टुकड़ो टुकड़ो में खाता हूँ 
और तेरी ख़ुश्बू में डूबे पानी से 
भिंगो लेता हूँ अपने होंट 
कि प्यास जाती रहे 

अब उम्मीद का सूरज सर उठाने लगा है 
तेरा सुर्ख़ लिबास सुबह की लालिमा हो जैसे 
उजाले की निशानी है चार सू 
वो घनेरे काले बादल के पीछे से 
मेरा चाँद मुस्कुराने लगा है  

असरारुल हक जीलानी
तारीख : 17 जनवरी 2015 

Friday 9 January 2015

क्यों ?

क्यों मुझे यहाँ इंसानो में छोड़ दिया है
भीड़ के बयबानो में छोड़ दिया है
बहुत रंजिशें हैं
बहुत सोज़ ओ गुदाज़ है
बहुत लोग हैं फिर भी नहीं हैं
न जाने क्या है यहाँ
कि दम घुटता है मेरा
लोगों ने मरने वालो पे रोना छोड़ दिया है
क्यों मुझे यहाँ इंसानो में छोड़ दिया है
आओ न ऐ फिज़ाओ की महक
मुझे उड़ा कर ले चल उफ़क़ के उस पार
और दिखा दे अँधेरी रात की चाँदनी
मुझे फलक का ज़र्रा ही बना दे
आओ न ऐ लटकते तारों का छुरमुट
ले चल मुझे यहाँ से
मैं भी टंग जाऊंगा तुम्हारी तरह
अब लोगों ने आसमां  देखना छोड़ दिया है
क्यों मुझे यहाँ इंसानो में छोड़ दिया हैं
आओ न रूह  ए मोहब्बत
यहाँ सब खाली है
खोखला है दिल ओ जां
मोहब्बत को समझने का माद्दा बचा नहीं है
कुछ तो रहम करो
कुछ तो करम करो
बस क़ल्ब इ इन्सां में बस जाओ
लोगो ने मोहब्बत समझना छोड़ दिया है
क्यों मुझे यहाँ इंसानो में छोड़ दिया हैं

असरारुल हक़ जीलानी 

Friday 2 January 2015

फिर से आओ न


फिर से आओ न

फिर से आओ न तुम
मेरे हबीब फिर से आओ न

दिल ओ ज़हन मोअत्तर हो गया है
कल उस ख़्वाब के बाद से
हाँ उस रात के बाद से
मेरी  हर बात से तेरी खुशबू निकलती है
मेरी हर सोच से तू ही तू निकलती है
मेरे हर क़दम से तेरी गली निकलती है
हो तो हर रात ऐसी हो जाए
फिर से आओ न तुम
मेरे हबीब फिर से आओ न

मैंने एक शेर कहा था
तेरा एक ख़्वाब चाहा था
और ये भी कहा था
दिल ओ जां में बस तू आ जाए
मेरा एक चाँद हो और वो तू हो जाए
तेरा चेहरा ज़हन की तितली बन जाए
मुझ पे जो गुज़रती है गुज़रने दो
चाक मेरा जिगर कर दो
मगर ख़्वाब में आओ न
फिर से आओ न तुम
मेरे हबीब फिर से आओ न

- असरारुल हक़ जीलानी
  तारीख़- 2 जनवरी 2015

Toward an Additional Social Order

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