कैम्पस में कोयल की आवाज़ यूँ गूँज रही है जैसे तमाम तोलबा व तालबात से कह रहा हो कि तुम कहाँ को चल दिए जबकि अब तो आया है मौसम ए बहार। देखो कुछ और मेरे दोस्तों को जो मेरे साथ चहक रहे हैं डाली-डाली और पुकारते हैं तुम्हारे रूह को इस इदारे की ज़मीन पर। उनको पता है अब कुछ दिनों बाद यहाँ ख़ामोशी होगी, लोगों का चहल पहल कम हो जाएगा लेकिन ऐसी ख़ामोशी का क्या करना जहाँ हवा की सरसराहट के पीछे कोई इंसानी सरसराहट न हो। दरअसल तुम नहीं जानते मियां इंसान हम चरिन्दे परिंदे तुम से खैर नहीं खाते, लेकिन जब तुम हद से गुज़र जाते हो और मरे हक को नज़र अंदाज़ कर देते हो | तुम्हारे मौजूदगी ही तो मेरे जीने का मकसद है, तुमने सुना नहीं कुरान में हमारे, तुम्हारे और सारी दुनिया के बनाने वाले ने क्या कहा है | मेरे पड़ोसियों, मेरे प्यारे तालिब ए इल्मो कभी-कभी मुझ से गुस्ताखी हो जाती है कि हम लोग बेखयाली में तुम्हारे बदन पे या कपड़ों पे बीट कर देते हैं जिस वजह कर तुम गुस्सा होते हो और न जाने क्या क्या बद-दुयाएँ देते हो, मगर क्या कभी तुम ने अपनी गलतियों और गुस्ताखियों पे नज़र डाली है | तुम बड़े मज़े से चिउगम चबाते हो और यूँही कहीं सड़क पे फेंक देते हो जिसे हम रोटी का टुकड़ा या कोई खाने का लज़ीज़ आइटम समझ कर गटक लेते हैं और फिर मौत | ऐसे भी न जाने क्या क्या तुम्हारे नफ्सियती खावाहिशों कि वजह से लोग बनाते रहते हैं , हर रोज़ कुछ न कुछ नयी चीज़ लांच होती रहती है अब कौन उन सब के बारे में इल्म रखे तो कम अज कम तुम ही उन हरकत का ख्याल रखो जिन से हम लोगों को कोई नुकसान न हो वरना तुम से बेहतर तो हम हैं कि हम घर भी बनाते हैं तो तिनके इन्सान के घरों से तोड़ कर नहीं लाते | वैसे टीस (TISS) कैम्पस में कोई ऐसा घर भी नहीं है जहाँ से नोच कर तिनके लाऊं लेकिन बला कि हरियाली है इस लिए तो दोस्त तुम्हारी यद् आ रही थी |
Sunday, 12 April 2015
Monday, 6 April 2015
I Don't want
I don’t want
I don’t want to touch you girl
Though I am a man among thousands of men
I am among men who live for sex not for rape
I am a man who sees you but not stalk
Who pass by you but not stare
Who has penis but not for wrong penetration
Who has hand but not to rub you forcefully
Some of you sometimes
rub your cleavage to my arm 6
intentionally in buses, at crowded place, in the train
I have dignity thus I don’t want
There are some among me who touch you intentionally
But not me
I am a young men, desire in my heart but
I don’t want to touch you lady
Though you have cleavage
Your attractive body to sue me
You have pink lips
But unattractive for me
I don’t want to kiss you
I don’t want to **** you
I don’t want to rub you
But my love
Asrarul Haque Jeelani
Date: 4th April 2015
I don’t want to touch you girl
Though I am a man among thousands of men
I am among men who live for sex not for rape
I am a man who sees you but not stalk
Who pass by you but not stare
Who has penis but not for wrong penetration
Who has hand but not to rub you forcefully
Some of you sometimes
rub your cleavage to my arm 6
intentionally in buses, at crowded place, in the train
I have dignity thus I don’t want
There are some among me who touch you intentionally
But not me
I am a young men, desire in my heart but
I don’t want to touch you lady
Though you have cleavage
Your attractive body to sue me
You have pink lips
But unattractive for me
I don’t want to kiss you
I don’t want to **** you
I don’t want to rub you
But my love
Asrarul Haque Jeelani
Date: 4th April 2015
Wednesday, 18 March 2015
ग़ज़ल
ग़ज़ल
हर ज़बां पे छा जाऊं और नाम भी न हो
ऐसा कोई काम करूँ कि आम भी न हो
ज़ालिम के पंख को पूरा आसमान दे दिया
परिंदों के पंख को एक शाम भी न हो
इतना नशा हो मेरी शिद्दत ए चाहत में
कि मैक़दे में बचा कोई जाम भी न हो
इतने खुदा हो गए हैं मेरे मुल्क में जैसे
मन्दिर में राम कोई काम भी न हो
माना असरार ए ग़ज़ल कोई काम का नहीं
तो क्या कुछ शेर यूँ बेकाम भी न हो
Thursday, 5 March 2015
ग़ज़ल
ग़ज़ल
नज़्म ओ ग़ज़ल सब को मुझ से अलग कर दो
बस उसकी तस्वीर में कोई रूह भर दो
कितने मद्दाह कितने आशिक़ हैं मेरी ग़ज़ल के
कोई उसको भी मेरी ग़ज़ल से वाक़िफ़ कर दो
लोग तामीर देखते हैं इमारत की बुनयाद नहीं
किसी को तो मेरे दर्द से वाक़िफ़ कर दो
मैंने कितनी मोहब्बतें दफनाई है ग़ज़ल के नीचे
उन में से किसी एक को अब तो ज़िंदा कर दो
उसकी तस्वीर का हूँ आशिक़ या हूँ उसका दीवाना
उस के रूह को भी अब मेरा दिलबर कर दो
असरारुल हक़ जीलानी
अल्फ़ाज़ के मायने :
मद्दाह- तारीफ करने वाला; तामीर- ईमारत बनाना, बनावट , ईमारत
नज़्म- कविता ; बुनयाद-जड़, नींव
नज़्म ओ ग़ज़ल सब को मुझ से अलग कर दो
बस उसकी तस्वीर में कोई रूह भर दो
कितने मद्दाह कितने आशिक़ हैं मेरी ग़ज़ल के
कोई उसको भी मेरी ग़ज़ल से वाक़िफ़ कर दो
लोग तामीर देखते हैं इमारत की बुनयाद नहीं
किसी को तो मेरे दर्द से वाक़िफ़ कर दो
मैंने कितनी मोहब्बतें दफनाई है ग़ज़ल के नीचे
उन में से किसी एक को अब तो ज़िंदा कर दो
उसकी तस्वीर का हूँ आशिक़ या हूँ उसका दीवाना
उस के रूह को भी अब मेरा दिलबर कर दो
असरारुल हक़ जीलानी
अल्फ़ाज़ के मायने :
मद्दाह- तारीफ करने वाला; तामीर- ईमारत बनाना, बनावट , ईमारत
नज़्म- कविता ; बुनयाद-जड़, नींव
Monday, 23 February 2015
ग़ज़ल
ग़ज़ल
असरारुल हक़ जीलानी
अल्फ़ाज़ के मायने :
अशआर- कविताएँ, शेर का बहुवचन, नज़म (नज़्म)- कविता, साक़ी- शराब पिलाने वाला/ वाली,
अलम- 1. झंडा 2. दुःख , ग़म; असरार- छुपी हुई बात, राज़ ; अफ़शाँ - ज़ाहिर करना या होना
संग ए अशआर मेरी चाहत मेरे क़लम से निकलेगी
जो भी निकलेगी थम थम के नज़म से निकलेगी
तुम्हे जितना क़त्ल करना है कर लो साक़ी
ख़ून मेरे गले से नहीं मेरे क़लम से निकलेगी
तूने बहुत लगाएं हैं ज़बाँ पे ताले लगाओ
मेरे हुक़ूक़ की आवाज़ मेरे अलम से निकलेगी
मेरे पैग़ाम का जवाब न दोगी कब तक ये
बेताब चाहत का रंज दर्द ओ अलम से निकलेगी
काट कर नज़्मों से किस तरह अलग कर दूँ उसको
जो दिल ही से न निकले ख़ाक नज़्म से निकलेगी
चेहरा छुपा के भी दिखा के भी चलते हैं लोग
वो जो हकीकत निकलेगी बड़ी शरम से निकलेगी
हालत ए असरार पुर-असरार हो गया है अब
ज़माने पे जो अफ़शाँ होगी वो नज़म से निकलेगी
असरारुल हक़ जीलानी
अल्फ़ाज़ के मायने :
अशआर- कविताएँ, शेर का बहुवचन, नज़म (नज़्म)- कविता, साक़ी- शराब पिलाने वाला/ वाली,
अलम- 1. झंडा 2. दुःख , ग़म; असरार- छुपी हुई बात, राज़ ; अफ़शाँ - ज़ाहिर करना या होना
Thursday, 12 February 2015
ज़मीन हूँ लफ़्ज़ों की
मेरी साँसें पकने लगीं हैं
आह गिरने लगीं हैं कट के
मोहब्बत के दरख़्त से
राहतें झड़ने लगीं हैं मिट के
सूखा जाता है ख़्वाब मेरा
ये कौन सी चाहत की तपिश है
जो झुलसा दिया है हर सब्ज़ा मेरा
इश्क़ तो चखा भी नहीं था मैंने
बस ख़्वाब देखा था
और काट दी गई सारी डालियाँ
चाँद तो अाया भी न था छत पे
बस बुलाया था
सूरज ने जला दिया आवाज़ मेरी
उसकी साँस तक पहुँचने से पहले
अभी तो पर भी न लगाया था मैं ने
बस चाहा था कि गढ़ दुँगा
चाँद तारे उसके लिए
मगर किसी ने आसमाँ जला दिया
कौशा
कहाँ तक रखता छुपा कर तुम को
ज़मीन हूँ लफ़्ज़ों की मैं
बीज छुपाऊँगा
पौदा तो निकलेगा ही
सूखी जाती है हर शाख़ मेरी
अब साँस दो कि ज़िंदा रहूँ
आह गिरने लगीं हैं कट के
मोहब्बत के दरख़्त से
राहतें झड़ने लगीं हैं मिट के
सूखा जाता है ख़्वाब मेरा
ये कौन सी चाहत की तपिश है
जो झुलसा दिया है हर सब्ज़ा मेरा
इश्क़ तो चखा भी नहीं था मैंने
बस ख़्वाब देखा था
और काट दी गई सारी डालियाँ
चाँद तो अाया भी न था छत पे
बस बुलाया था
सूरज ने जला दिया आवाज़ मेरी
उसकी साँस तक पहुँचने से पहले
अभी तो पर भी न लगाया था मैं ने
बस चाहा था कि गढ़ दुँगा
चाँद तारे उसके लिए
मगर किसी ने आसमाँ जला दिया
कौशा
कहाँ तक रखता छुपा कर तुम को
ज़मीन हूँ लफ़्ज़ों की मैं
बीज छुपाऊँगा
पौदा तो निकलेगा ही
सूखी जाती है हर शाख़ मेरी
अब साँस दो कि ज़िंदा रहूँ
Tuesday, 10 February 2015
कौशा !
कौशा
!
जब
मैं डायरी के
कंधे पे सर
रख के सो
जाऊ
और
जब तुम देखो
तो
अपनी यादों को
आँखों से चूमना
फिर
आहिस्तह से निकाल
कर
डायरी
मेरे हाथ से
रख
देना मेरे मेज़
पे
और
उंगलियो में फंसी
क़लम को
मिन्नत
से निकाल कर
दिखा
देना कुछ रंग
अपने चेहरे का
फिर
रख देना उसी
डायरी के बीच
कि
मुझे याद रहे
लिखा था रात
कुछ
एक
नज़र देखना मेरे
सोए हुए चेहरे
को
और
कुछ ख़्वाब छिड़क
देना
कुछ
बांध देना मेरे
पलकों पे
कि
जब भी जागूँ
सब
से पहले
तेरे
ख़्वाब को आज़ाद
कर दूँ
Sunday, 18 January 2015
मेरे ग़ज़ल की हक़ीक़त
उस रु ए माहताब में रखा क्या है
कोई मक़नातिस है
या कोई नाखुदा ए बादबान
जो अपने इशारे से
मेरे अशआर का रुख़ बदल देती है
मेरे काग़ज़ पे उतार कर
अपना वो चेहरा रख देती है
और फिर उभर आते हैं
कुछ शेर कुछ नज़्म
उसका दीदार करने को मेरे सारे लफ्ज़
ज़हन से उत्तर आते हैं
पीले सरसों के फूलों में
कहीं छिप जाने को
या गूथ जाने किसी दीवान में
कहीं किसी सफ़हे पे
उनके सिर्फ एहसास ए आमद से
मचलती है जो हलचल कहीं
उसी शोर से मेरे ज़हन के शाख़ से
टपकने लगते हैं अशआर
जिसके ज़बां पे है तेरा नाम जानम
असरारुल हक़ जीलानी
तारीख़: 18 जनवरी 2015
माहताब- चाँद , मक़नातिस - चुम्बक, नाखुदा - कश्ती चलाने वाला ,
दीवान- कविताओं का संग्रह , अशआर - कविताएं
कोई मक़नातिस है
या कोई नाखुदा ए बादबान
जो अपने इशारे से
मेरे अशआर का रुख़ बदल देती है
मेरे काग़ज़ पे उतार कर
अपना वो चेहरा रख देती है
और फिर उभर आते हैं
कुछ शेर कुछ नज़्म
उसका दीदार करने को मेरे सारे लफ्ज़
ज़हन से उत्तर आते हैं
पीले सरसों के फूलों में
कहीं छिप जाने को
या गूथ जाने किसी दीवान में
कहीं किसी सफ़हे पे
उनके सिर्फ एहसास ए आमद से
मचलती है जो हलचल कहीं
उसी शोर से मेरे ज़हन के शाख़ से
टपकने लगते हैं अशआर
जिसके ज़बां पे है तेरा नाम जानम
असरारुल हक़ जीलानी
तारीख़: 18 जनवरी 2015
माहताब- चाँद , मक़नातिस - चुम्बक, नाखुदा - कश्ती चलाने वाला ,
दीवान- कविताओं का संग्रह , अशआर - कविताएं
Saturday, 17 January 2015
मेरा चाँद मुस्कुराने लगा है
तेरी याद का एक टुकड़ा
पड़ा रहता है मेरी जेब में
मेरी सूखी नज़्मों के साथ
जब भी थक जाता हूँ
या भूख परेशान करती है सफर में
तेरी याद के टुकड़े को
टुकड़ो टुकड़ो में खाता हूँ
और तेरी ख़ुश्बू में डूबे पानी से
भिंगो लेता हूँ अपने होंट
कि प्यास जाती रहे
अब उम्मीद का सूरज सर उठाने लगा है
तेरा सुर्ख़ लिबास सुबह की लालिमा हो जैसे
उजाले की निशानी है चार सू
वो घनेरे काले बादल के पीछे से
मेरा चाँद मुस्कुराने लगा है
असरारुल हक जीलानी
तारीख : 17 जनवरी 2015
Friday, 9 January 2015
क्यों ?
क्यों मुझे यहाँ इंसानो में छोड़ दिया है
भीड़ के बयबानो में छोड़ दिया है
बहुत रंजिशें हैं
बहुत सोज़ ओ गुदाज़ है
बहुत लोग हैं फिर भी नहीं हैं
न जाने क्या है यहाँ
कि दम घुटता है मेरा
लोगों ने मरने वालो पे रोना छोड़ दिया है
क्यों मुझे यहाँ इंसानो में छोड़ दिया है
आओ न ऐ फिज़ाओ की महक
मुझे उड़ा कर ले चल उफ़क़ के उस पार
और दिखा दे अँधेरी रात की चाँदनी
मुझे फलक का ज़र्रा ही बना दे
आओ न ऐ लटकते तारों का छुरमुट
ले चल मुझे यहाँ से
मैं भी टंग जाऊंगा तुम्हारी तरह
अब लोगों ने आसमां देखना छोड़ दिया है
क्यों मुझे यहाँ इंसानो में छोड़ दिया हैं
आओ न रूह ए मोहब्बत
यहाँ सब खाली है
खोखला है दिल ओ जां
मोहब्बत को समझने का माद्दा बचा नहीं है
कुछ तो रहम करो
कुछ तो करम करो
बस क़ल्ब इ इन्सां में बस जाओ
लोगो ने मोहब्बत समझना छोड़ दिया है
क्यों मुझे यहाँ इंसानो में छोड़ दिया हैं
असरारुल हक़ जीलानी
Friday, 2 January 2015
फिर से आओ न
फिर से आओ न
फिर से आओ न तुम
मेरे हबीब फिर से आओ न
दिल ओ ज़हन मोअत्तर हो गया है
कल उस ख़्वाब के बाद से
हाँ उस रात के बाद से
मेरी हर बात से तेरी खुशबू निकलती है
मेरी हर सोच से तू ही तू निकलती है
मेरे हर क़दम से तेरी गली निकलती है
हो तो हर रात ऐसी हो जाए
फिर से आओ न तुम
मेरे हबीब फिर से आओ न
मैंने एक शेर कहा था
तेरा एक ख़्वाब चाहा था
और ये भी कहा था
दिल ओ जां में बस तू आ जाए
मेरा एक चाँद हो और वो तू हो जाए
तेरा चेहरा ज़हन की तितली बन जाए
मुझ पे जो गुज़रती है गुज़रने दो
चाक मेरा जिगर कर दो
मगर ख़्वाब में आओ न
फिर से आओ न तुम
मेरे हबीब फिर से आओ न
- असरारुल हक़ जीलानी
तारीख़- 2 जनवरी 2015
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Toward an Additional Social Order
This refers to the article, ‘of lions and dogs’ (IE, September 19). The author argued to inform misunderstood stand of Swami Vivekanand...
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मैं मर गया हूँ और मुझे मरे पांच दिन हो गए हैं , मेरे शरीर को यहाँ सुनसान , अनजान सी जगह पर लाशों से निकल कर कुछ कीड़े खा रहे हैं मगर न भा...
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जब दिसम्बर का दिन जवान होता है तुम आकर बैठ जाती हो छत पे रात की थकी हुई ठण्डी आहों को सूरज के गर्म लम्स से सेकती हो और मैं उसके शो...