ग़ज़ल
नज़्म ओ ग़ज़ल सब को मुझ से अलग कर दो
बस उसकी तस्वीर में कोई रूह भर दो
कितने मद्दाह कितने आशिक़ हैं मेरी ग़ज़ल के
कोई उसको भी मेरी ग़ज़ल से वाक़िफ़ कर दो
लोग तामीर देखते हैं इमारत की बुनयाद नहीं
किसी को तो मेरे दर्द से वाक़िफ़ कर दो
मैंने कितनी मोहब्बतें दफनाई है ग़ज़ल के नीचे
उन में से किसी एक को अब तो ज़िंदा कर दो
उसकी तस्वीर का हूँ आशिक़ या हूँ उसका दीवाना
उस के रूह को भी अब मेरा दिलबर कर दो
असरारुल हक़ जीलानी
अल्फ़ाज़ के मायने :
मद्दाह- तारीफ करने वाला; तामीर- ईमारत बनाना, बनावट , ईमारत
नज़्म- कविता ; बुनयाद-जड़, नींव
नज़्म ओ ग़ज़ल सब को मुझ से अलग कर दो
बस उसकी तस्वीर में कोई रूह भर दो
कितने मद्दाह कितने आशिक़ हैं मेरी ग़ज़ल के
कोई उसको भी मेरी ग़ज़ल से वाक़िफ़ कर दो
लोग तामीर देखते हैं इमारत की बुनयाद नहीं
किसी को तो मेरे दर्द से वाक़िफ़ कर दो
मैंने कितनी मोहब्बतें दफनाई है ग़ज़ल के नीचे
उन में से किसी एक को अब तो ज़िंदा कर दो
उसकी तस्वीर का हूँ आशिक़ या हूँ उसका दीवाना
उस के रूह को भी अब मेरा दिलबर कर दो
असरारुल हक़ जीलानी
अल्फ़ाज़ के मायने :
मद्दाह- तारीफ करने वाला; तामीर- ईमारत बनाना, बनावट , ईमारत
नज़्म- कविता ; बुनयाद-जड़, नींव
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