Thursday, 24 December 2015

दिसम्बर और तुम

जब दिसम्बर का दिन जवान होता है
तुम आकर बैठ जाती हो छत पे
रात की थकी हुई ठण्डी आहों को
सूरज के गर्म लम्स से सेकती हो
और मैं उसके शोंओं पे रश्क करता हूँ 
कि मेरी रूह भी तुम्हारे लम्स से संवर जाए
और यूँ कि दवा हो जाए मेरे दर्द की भी
फिर ठण्डी हवाएं छेड़ती हुई
गुज़र जाती है तेरे गेसुओं को
और रुख ए माहताब पे बिखर जाती है
हुस्न की सारी अदाएं
तुम्हारे लब ओ रुखसार
चश्म ए जां निसार
सब दिसम्बर की सी खुबसूरत हो जाती है

- असरार

No comments:

Post a Comment

Toward an Additional Social Order

This refers to the article, ‘of lions and dogs’ (IE, September 19). The author argued to inform misunderstood stand of Swami Vivekanand...