Friday, 20 November 2015

ग़ज़ल


मुहब्बत के मारे या दहशत के मारे
भटकते हैं सब हिफ़ाज़त के मारे

मुहब्बत है महंगी है सस्ती अदावत
जलती है बस्ती अदावत के मारे

कुर्सी पे ज़ालिम हैं क़ैद आदिल
होती है गड़बड़ सियासत के मारे

समझे न मज़हब उठाए हैं खंज़र
मरते हैं इन्सा जिहालत के मारे

मुहब्बत न मुश्किल न आसान ही है
जीते हैं मरते मुहब्बत के मारे

असरार 



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