Sunday, 12 April 2015

परिन्दे पुकारते है तुमको कैम्पस में

कैम्पस में कोयल की आवाज़ यूँ गूँज रही है जैसे तमाम तोलबा व तालबात से कह रहा हो कि तुम कहाँ को चल दिए जबकि अब तो आया है मौसम ए बहार। देखो कुछ और मेरे दोस्तों को जो मेरे साथ चहक रहे हैं डाली-डाली और पुकारते हैं तुम्हारे रूह को इस इदारे की ज़मीन पर। उनको पता है अब कुछ दिनों बाद यहाँ ख़ामोशी होगी, लोगों का चहल पहल कम हो जाएगा लेकिन ऐसी ख़ामोशी का क्या करना जहाँ हवा की सरसराहट के पीछे कोई इंसानी सरसराहट न हो। दरअसल तुम नहीं जानते मियां इंसान हम चरिन्दे परिंदे तुम से खैर नहीं खाते, लेकिन जब तुम हद से गुज़र जाते हो और मरे हक को नज़र अंदाज़ कर देते हो | तुम्हारे मौजूदगी ही तो मेरे जीने का मकसद है, तुमने सुना नहीं कुरान में हमारे, तुम्हारे और सारी दुनिया के बनाने वाले ने क्या कहा है | मेरे पड़ोसियों, मेरे प्यारे तालिब ए इल्मो कभी-कभी मुझ से गुस्ताखी हो जाती है कि हम लोग बेखयाली में तुम्हारे बदन पे या कपड़ों पे बीट कर देते हैं जिस वजह कर तुम गुस्सा होते हो और न जाने क्या क्या बद-दुयाएँ देते हो, मगर क्या कभी तुम ने अपनी गलतियों और गुस्ताखियों पे नज़र डाली है | तुम बड़े मज़े से चिउगम चबाते हो और यूँही कहीं सड़क पे फेंक देते हो जिसे हम रोटी का टुकड़ा या कोई खाने का लज़ीज़ आइटम समझ कर गटक लेते हैं और फिर मौत | ऐसे भी न जाने क्या क्या तुम्हारे नफ्सियती खावाहिशों कि वजह से लोग बनाते रहते हैं , हर रोज़ कुछ न कुछ नयी चीज़ लांच होती रहती है अब कौन उन सब के बारे में इल्म रखे तो कम अज कम तुम ही उन हरकत का ख्याल रखो जिन से हम लोगों को कोई नुकसान न हो वरना तुम से बेहतर तो हम हैं कि हम घर भी बनाते हैं तो तिनके इन्सान के घरों से तोड़ कर नहीं लाते | वैसे टीस (TISS) कैम्पस में कोई ऐसा घर भी नहीं है जहाँ से नोच कर तिनके लाऊं लेकिन बला कि हरियाली है इस लिए तो दोस्त तुम्हारी यद् आ रही थी |

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