Friday, 17 April 2015

ख़ामोशी के दरीचे से

ख़ामोशी दरअसल दवा है हजारों सवाल का और कुछ इसे वबा भी कहते हैं यानि अगर ख़ामोशी हद से ज्यादा हो जाये और वक़्त पे इलाज न हो तो नासूर बन कर चुभती भी है और चुभाती भी है अपने आस पास वालों को | लेकिन मिया ! वल्लाह क्या मज़ा है खामोश रहने का जैसे खुद ही खुद के सरताज हों, जैसे ग़ालिब मिया का “होता है शब ओ रोज़ तमाशा मेरे आगे” और उस तमाशे का मज़ा लेते हैं, समेट कर हर मंज़र को रखते जाते हैं खुद में अंदर कहीं | और तो और मेरे दोस्त सब से मज़े कि बात तो ये है कि जब हम खामोश रहते हैं अंदर कुछ पकता रहता है |

हमें लगते है कोई खामोश है मगर होता नहीं है| अब मुझे ही देख लीजिये शाम से खामोश हूँ लेकिन अंदर एक दुनिया चल रही है जिस में शाम को तूफान आया था फिर बरसात हुई और अभी हल्का हल्का मद्धम आंच में कुछ पक रहा है | हालांकि कुछ पकने में थोडा देर लगता है लेकिन जब निकलता है तो खामोश रहने वाला शख्स ही उससे फैज़याब नहीं होता बल्कि हजारों लोग और कभी कभी पूरी इंसानियत लुत्फ़ अन्दोज़ होती है | अब लीजिये न न्यूटन साहेब को बेचारे घंटो पेड के नीचे बैठ कर सोचते रहे कि आखिर सेब नीचे क्यों गिरा और मियां ग़ालिब अपनी तन्हाई शराब के साथ और ख़ामोशी कलम के साथ गुजारी तो मिया क्या कहने उनके अशआर के, मीर साहेब ने दर्द को ज़बान दी बड़ी ख़ामोशी में और न जाने कितने शायर हैं जो ख़ामोशी को तो पसंद करते ही थे साथ ही साथ पकाते भी थे अंदर कुछ नज़्म ओ ग़ज़ल |

खामोश रहना अगर कोई सीखे तो पीरों और सूफियों से जिनको देख कर आप भी खामोश हो जाएँ, ज़बान को रोक लें और बक बक करना छोड़ दें | अल्लाह के वाली होते है वो जो लफ्जों को गिन कर बोलते हैं | ऐसे भी वली गुज़रे हैं जो पुरे दिन कितनी बेकार बातें कि और कितनी अच्छी गिन कर सोया करते थे और ये अहद लिया करते थे कि आइन्दा कम बोलेंगे हालांकि वालियों और सूफियों कि एक एक बात हज़ार कि होती है|

ये मैं क्यूँ लिखने बैठ गया | अच्छा याद आया अभी आ रहा था दोस्तों के साथ, तो मियां मैं बड़ी ख़ामोशी से सडकों पे चलती हुई महफ़िल को साथ दे रहा था लेकिन मैं खामोश नहीं था कुछ पका रहा था अंदर| लेकिन ये क्या जनाब किसी ने छेड़ दी “हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले“ बस क्या था मैं भी गाने लगा और फिर तरन्नुम से झूम उठी पूरी महफ़िल और मैं मस्त हो गया, फिर बात होने लगी उर्दू पे, उर्दू ज़बान पे| लेकिन इस से हुआ ये कि मेरी ख़ामोशी टूट गयी और वो जो कुछ पक रहा था अंदर वो अध पका रह गया, थोड़ी देर बाद गया अंदर और फिर से ख्याल को चढ़ा आया तब जाकर ये कुछ लफ्ज़ पक कर आप के सामने हाज़िर हुए हैं |  


असरारुल हक जीलानी
तारीख: 18 अप्रैल 2015 

No comments:

Post a Comment

Toward an Additional Social Order

This refers to the article, ‘of lions and dogs’ (IE, September 19). The author argued to inform misunderstood stand of Swami Vivekanand...