मैं मर गया हूँ
और मुझे मरे पांच दिन हो गए हैं, मेरे शरीर को
यहाँ सुनसान, अनजान सी जगह पर लाशों से निकल कर कुछ कीड़े खा
रहे हैं मगर न भारतीय पुलिस का कोई पता है, न ही कोई समाज
सेवक का | हो भी कैसे जब प्रलय का भयावह दृश्य आप की
आँखों के सामने गुज़र रहा हो तो कौन देखता है दूसरों को, देश तो छोड़िए, धर्म तो छोड़िए, लोग अपने बीवी-बच्चे, माँ-बाप तक की
ख़बर नहीं लेते | मैं ठहरा एक अजनबी इस शहर का और देश का एक असफल
समाज सेवक जिसने इंजीनियरिंग करने के बाद समाज कार्य की पढ़ाई एक प्रसिद्ध संस्था
से की और फिर समाज कार्य में लग गया लेकिन बहुत प्रयत्न के बावजूद भी लोगों को अपनी
बात समझा न सका | अब या तो मैं नाकारा था जिसने कुछ लोगों को अपनी बात समझा नहीं
पाया या ये जो पड़े हैं बेगुनाह से हज़ारों लाश बेवक़ूफ़ थे, निपट जाहिल; तो लोग मेरी लाश
की तलाश में क्योंकर इधर आएँगे |
ये जो पड़े हैं
मेरे बराबर में, पहचानते हैं आप ? सहगल साहब हैं
.... जयंत कुमार सहगल, देश के प्रसिद्ध एवंम प्रतिष्ठित सिविल इंजिनियर, जो मुझे ये समझाने आए थे कि मैं फालतू, बेतुकी और बेबुनियाद बातें अखबारों या किताबों
में लिख कर जनता में अफवाह न फैलाऊँ और अब देखिये बेचारे उस सच्चाई की चोट खा कर
इस तरह पड़े हैं कि आँखों में कीड़े घुस रहे हैं जिन को अब भगा भी नही सकते | और सुना है जनाब कि प्रोफेसर शबनम नाज़ भी न
रहीं, बहुत ही दर्दनाक मौत हुई उनकी | खैर साहब ये तो होना ही था जब स्वयं ही परिणाम को जानती
हों और कुछ पैसों की लालच, ओहदे और शोहरत की
भूख की वजहकर उसे छिपाएंगे तो उसको एक दिन यथार्थ तो खाएगा ही | लेकिन मेरे दोस्त ये बड़ा बुरा हुआ कि जनाब
रस्कीन झागर साहब को भी इस क़हर ने नहीं छोड़ा, बड़े फिकरमंद और
अक़लमंद इंसान थे | अक्सर कहा करते
थे बेटा “जिस दिन इंसान अपने आस पास के पर्यावरण से ऐसा
ही प्रेम करने लगे जैसा वो अपने बच्चों और सम्बन्धियों से करता है उस दिन से आपदाओं
को शर्म आएगी आते हुए उस जगह और उन इंसानों पे” |
मुझे याद है जब
2015 में मुल्क के अक्सर उत्तरी राज्यों में भूकम्प का झटका शुरू हुआ जो तक़रीबन एक
महीने तक अवाम को डर व खौफ़ के साए में रखा और मौत की गिनती 200 तक हो गई थी जो
नेपाल के खौफ़नाक तबाही से कम तो थी मगर जनता, सरकार और प्रगतिशील
व्यक्तियों को सोचने पे मजबूर कर दिया था कि आख़िर ऐसे प्राकृतिक आपदाओं से लड़ने के
क्या उपाय हों ? उसी दौरान मैंने
अपने शिक्षक एवंम समाज कार्यकर्ता
रस्किन झागर साहब से एक सवाल किया था कि अगर ऐसे ही भूकम्प के झटके की वजह से
टिहरी बाँध टूट जाए तो उसका परिणाम क्या होगा और ये निवेदन किया था कि सरकार और विकास
परियोजना से जुड़े लोगों की एक बैठक करवाई जाए और ऐसे अगामी समस्या पे मंथन किया
जाए | हम ने चार महीने की कठिन परिश्रम के बाद एक
कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया जिसमें विभिन्न श्रोतों से पुख्ता तथ्य पेश किए और ये
बताने का प्रयत्न किया कि अगर टिहरी बाँध टूट जाए है तो टिहरी से दिल्ली तक के
सारे शहर और गाँव पानी में डूब जाएंगे इसलिए ये आवश्यक है कि कुछ एहतियाती क़दम उठाए
जाएं इस से पहले कि ये घटना घटे | मगर हमारी बातों
को अनसुना कर दिया गया और हमें दबाने का प्रयत्न किया गया | हमारे ऊपर ये इलज़ाम लगाया गया कि हम विकास में रोड़े अटका
रहे हैं और शोहरत के भूखे हैं |
मैं आज सोचता हूँ
तो पाता हूँ कि यही उनकी भूल थी | खैर हमने अपनी
आवाज़ को पूरी तरह से दबने तो नहीं दिया मगर अपनी बात मनवाने में कामयाब नहीं हुआ
और उसी का परिणाम है कि आपकी आँखों के सामने बच्चे, बूढ़े, मर्द, औरत सब पानी की
बड़ी सी आँख में स्वयं तैर रहे हैं जिन्हें तैरना सिखाने की आवश्यकता नहीं पड़ी, स्वयं ही आधे घंटे पानी के अन्दर सिसकियाँ लेने
के पश्चात सिख गए हैं | पैरों में फंसे
चप्पल, खूंटे से बंधे जानवर, बदन से लिपटे कपड़े और दफ्तरों में क़ैद काग़ज़ात
सारे आज़ाद हो गए हैं और ऐसे पानी पे बैठ कर भागे जा रहे हैं जैसे स्वामी उसे फिर
से न पकड़ ले| टिहरी से दिल्ली तक की पूरी आबादी तबाह हो गई
है सिर्फ़ एक भूकम्प के झटके से बाँध टूटी और फिर . . . . . . . . . बर्बादी . . .
. सामने . .है |
देखो मेरे कान
में कोई कीड़ा घुसा जा रहा है...... बदबू भी कर रहा है.... कोई भगाओ इसे |
मैं देखता हूँ कि
रेडियो, टेलीविज़न और फेसबुक पे लाशों ने टहलना शुरू कर दिया है | लोगों ने बेचना
शुरू कर दिया है लाशों की जलावन, कुछ दफ्तरों में बैठे लोगों ने ख़रीद कर जलाना
शुरू कर दिया है और नेताओं ने पकाना शुरू कर दिया है रोटी | अब बंटेगी रोटियाँ . .
. . . . मेरे सामने भी पड़ी है, क्या उठा लूँ
. . . . . खा लूँ . . .नहीं . . . .
हाँ . . . नहींहींहीं
. .
ये कीड़े क्यों
परेशान कर रहे हैं दूसरों की लाशों से मेरे शरीर पे क्यों आ रहे हैं . . . उफ्फ्फ़
काट लिया |
धराम . . . . फ़ाइल गिरी | फ़ाइल गिरने की आवाज़ मेरे
कानों में सूई की तरह चुभी और मेरी नींद टूट गई |
देखता हूँ कि
मेरा दोस्त कोई फ़ाइल या किसी विशेष पुस्तक की तलाश में मेरे ही कक्ष में मेरी ही
अलमारी में मग्न है और उसे ख़बर भी नहीं कि कोई फ़ाइल नाम की चीज़ अलमारी से उतर कर
ज़मीन पे सर पटख चुकी है लेकिन एक मैं हूँ कि फ़ाइल गिरने की आवाज़ से एक दुनिया से
दूसरी दुनिया में कूद आया | वैसे इस दर्दनाक सपने से बाहर लाने के लिए इस परेशान
आत्मा का धन्यवाद तो करना चाहता था मगर सोचा रहने दो मग्न उसे उसके हाल पे कि शायद
वो भी किसी सपने को कुरेद रहा हो जो कि ज़रूरी है मस्तिष्क में फँसे उलझनों को
सुलझाने के लिए |
मुझे कॉन्फ्रेंस
में जाना था इसलिए थोड़ी जल्दी की और तैयार हो कर रस्किन सर के कमरे में गया, सर को फैक्ट्स की फाइल दिया, कुछ वालंटियर को कार्यक्रम का विवरण दिया और
कॉन्फ्रेंस हॉल में चला गया | ये 2015 का साल
है, 2025 के खौफ़नाक तबाही को आने से पहले उसे ना आने देने पे बात करने का साल
और उसी साल के एक अहम् दिन के लिए कॉन्फ्रेंस हॉल में बैठा हूँ जहाँ वही मरे हुए
सहगल साहेब जिंदा मेरे बराबर में हैं, नाज़ साहिबा बड़े
खुश व ख़ुर्रम बैठी किसी से बात कर रही है और रस्किन सर किसी सोच में कहीं गुम |
( जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी के हिंदी यूनिट द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कृत कहानी | )