“मुझे मालुम पड़ता
है कि आपकी आमद यहाँ वक़्त से क़बल हो गयी है ?” “ग़ालिब* साहेब, आप और तुम की बंदिश में
न रह कर बात की जाए तो बेहतर है क्यूंकि आप और तुम ज़ुबान से बोल देना सिर्फ़ इसकी
अलामत नहीं है कि ग़ालिब मेरा अहतराम करता है या मैं ग़ालिब का एहतराम करता हूँ ठीक
उसी तरह जैसे भारत माता की जय कहना क़तई सुबूत नहीं है कि कोई अपने मुल्क से
मोहब्बत करता/करती है हालाँकि कुछ लोग इसी को हुब्बुल वतन (देशभक्त) होने का सनद
मानते हैं और मैं इस से इनकार करता हूँ | रही बात तुम्हारे (लफ्ज़ में अहतराम व
इज्ज़त न तलाशें) सवाल की तो मियाँ, कौन सा वक़्त और कैसी आमद, मैं तो बस तुम से
मुलाक़ात करने इस तरफ़ बढ़ लिया, दुनिया में कहीं पे सो रहा हुंगा लेकिन रूह टहलती
हुई इस तरफ़ आ निकली, सोचा तुम से वतन का कुछ हाल अहवाल बता दिया जाए हालाँकि
तुम्हारे अहवाल से क्या लेना लोगों को, बस ग़ज़ल सुनते हैं तुम्हारी और वाह वाह कर
के मस्ती से सो जाते हैं और वक़्त मिलता है तो उर्दू को दो चार गलियाँ भी दे देते
हैं, दो चार क़त्ल भी कर देते हैं | खैर बात मुद्दे की करें तो जनाब मुल्क एक अजीब
माहौल से गुज़र रहा है, हर तरफ़ चीख़ व पुकार, क़त्ल ओ ग़ारत है जैसे कोई औरत दौरान ए
जचगी दर्द से कराह रही हो | जिनको कुछ लोग भारत माता कहते हैं और जिसे मैं अपना
वतन कहता हूँ उनको हामला (गर्भवती) कर दिया है और एक नया मुल्क पैदा करने की कोशिश
कर रहे हैं और ऐसी पैदाइश मुल्क के लिए ख़तरा है जैसा सत्तर साल पहले एक मुल्क पैदा
हुआ था जिसकी रंजिश हम आज तक झेल रहे हैं | हर सिम्त साया है किसी के मौत का या
किसी ऐसी ज़िन्दगी का जो एक खौफ़नाक रंज लिए पैदा होगा |”
“तुम क्या कर रहे
हो फिर ?” “हक़ीक़त कहूँ तो कुछ नहीं और अगर हिम्मत अफज़ाई के लिए कहूँ तो बहुत कुछ
क्योंकि ऐसे वक़्त में एह्तेजाज़ कर लेना भी कमाल है, कुछ बोल लेना, कुछ लिख लेना भी
बड़ा काम है जो मैं कर रहा हूँ | मैं कहने ये आया था कि तुम्हारे जाने के बाद कुछ
लोगों ने तुम्हारे कलाम को जिंदा किया और अवाम फिर जान पाई कि कोई ऐसा भी शायर था
जिसका नाम सफ़्हे हस्ती पे देर से आया मगर ग़ालिब हुआ ग़ज़ल की दुनिया में | उन तमाम
नुमाया कामों में एक ये भी है कि तुम्हारे नाम का एक अकैडमी है और एक इंस्टिट्यूट
भी यानि ग़ालिब इंस्टिट्यूट | 12 अगस्त 2017 को मेरा जाना हुआ था वहां, एक मुशायरा जश्न
ए आज़ादी के सिलसिले से जिसे अंजुमन ए उरूज ए उर्दू हर साल मनाती आ रही है | मौजूदगी
राहत इन्दौरी, गुलज़ार देहलवी, अशोक साहिल, मंज़र भोपाली, इकबाल अशर साहेब वगैरह की
थी | अब मुशायरा जश्न ए आज़ादी पे था तो ज़ाहिर सी बात है वतन के नाम कुछ ग़ज़ल, नज़्म
और गीत होंगे ही लेकिन मुशायरे की तहज़ीब में भारत माता की जय पहली मरतबा सुना |
हुआ यूँ कि मंज़र भोपाली साहेब एक गीत समाअत फरमा रहे थे, बाद अज़ गीत के ऐवान ए
ग़ालिब के बीच से एक नारा बुलंद किया गया ‘भारत माता की जय’ जवाब में ऐसा नहीं था
कि आवाज़ बुलंद न हुई, उसी जोश ओ ख़रोश से भारत माता की जय भी कहा गया लेकिन मुझे
ताज्जुब हुआ कि ये किस तरह की तहज़ीब जिंदा करने की कोशिश की जा रही है कि एक तहज़ीब
का जामा दूसरी तहज़ीब को पहनाया जा रहा है | मंज़र भोपाली साहेब के इस जवाब से दर्द
झलकता है कि ‘लिजिये हम ने भी जय कह दिया अब तो सारे मसले ख़त्म हो जाने चाहिए’ |
दरअसल ग़ालिब साहेब अब वो दिन दूर नहीं जब कुछ झूठे वतन के आशिक़ कुछ लोगों से जनाज़े
की नमाज़ पे भी भारत माता की जय कहने को कहेंगे लेकिन जब इन से कहा जाए कि मादर ए
वतन जिंदाबाद कहो तो वो उर्दू होने की वजह से इनकार कर देंगे | खैर चलता हूँ |”
* सुखन ए ज़मीन, उस्दाद ए ग़ज़ल, शख्सियत ए तर्ज़ ए नौ मिर्ज़ा असदुल्लाह खान ग़ालिब , आप को तुम कहने का मक़सद सिर्फ़ ये बताना था लफ्ज़ ए भारत माता कि जय में देशभक्ति में नहीं है जिस तरह लफ़्ज़ों में एहतराम नहीं बल्कि इंसान क़ल्ब में होता है |
No comments:
Post a Comment