ग़ज़ल
मैं हिज्र में कितना इंसाफ़ कर रहा हूँ
आजकल तेरी याद में एतकाफ़ कर रहा हूँ
भटक भटक कर उसकी गलियों में अब
मैं अपने ख़ुदा का तवाफ़ कर रहा हूँ
इश्क़ में ज़रूरी है तबाही दिल की
मैं दिल को जला कर सफ़्फ़ाफ़ कर रहा हूँ
जैसा भी हूँ जो भी हूँ तेरा बन्दा हूँ
मैं अपने गुनाहों का एतराफ़ कर रहा हूँ
मैं इज़हार ए इश्क़ का ताब कहाँ से लाऊं
अपने फ़ैसले पे लाम काफ़ कर रहा हूँ
غزل
میں ہجر میں کتنا انصاف کر رہا ہوں
آج کل تیری
یاد میں اعتکاف کر رہا ہوں
بھٹک بھٹک کر اسکی گلیوں
میں اب
میں اپنے
خدا کا طواف کر
رہا
ہوں
عشق میں ضروری ہے تباہی دل کی
میں دل کو جلا کر سفّاف کر رہا ہوں
جیسا بھی ہوں جو بھی ہوں تیرا بندہ ہوں
میں اپنے گناہوں کا اعتراف کر رہا ہوں
میں اظہار عشق کا تعب کہاں سے لاؤں
اپنے فیصلے پہ لام
کاف کر رہا ہوں
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