Thursday, 7 April 2016

मुहब्बत देख ली मैं ने


कल शाम जब अब्बा से बात की तो मुझे गाँव की याद आने लगी फिर उसी रात आँखों को नींद की मुलाक़ात से पहले कुछ ख्याल में गुम होने लगा तो देखता हूँ कि मेरे बाग़ से हवा की एक टोली मेरी गली होते हुए मेरे आँगन में पहुँचती है जहाँ से छलांग लगा कर मेरी दहलीज पे कूद पड़ती है और वहाँ रखे चिराग़ से खलेने लगती है | चिराग़ उस हवा के झोंकें से कांपता, थरथराता बुझने को होता है तभी उस में एक नया दम पैदा होता है और फिर उसी शान से जलने लगता है मगर उसी दम फिर वैसा ही शर्माने लगता जैसे कोई महबूबा हो जिसे उसका आशिक़ छेड़ रहा हो और वो शर्मा रही हो, दुपट्टे से अपना चेहरा छुपा रही हो मगर जब हद हो जाती हो तो वो तैश में आकर उसके बराबर शेरनी सी खड़ी हो जाती हो और फिर आगे वही छेड़ने और शर्माने का सिलसिला......| मैं ये देख कर मुस्कुराने लगता हूँ तो दरवाज़े से मेरे अब्बा मुझ से पूछते हैं वजह मुस्कुराने की, तो मैं कहता हूँ मुहब्बत देख ली मैं ने कि मुहब्बत में जीना हवा के झोंके के बीच चिराग़ों सा है |

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