ग़ज़ल
मेरे माथे पे तेरी यादों का टप्पा पड़ा है
तेरी ज़िन्दगी में मेरा भी कुछ हिस्सा पड़ा है
कमरे की तन्हाई में तेरी परछाई लिए बैठा हूँ
सुना है अँधेरे में तेरे हुस्न का हिस्सा पड़ा है
कमबख्त उम्मीद है खत्म होती ही नहीं है
पीछे मेरे हुस्न आगे मेरे मक्का पड़ा है
वो जो तोड़ कर लाया था तेरे चेहरे का नूर
मेरे लफ़्ज़ों में उसी नूर का क़िस्सा पड़ा है
डायरी क़लम किताब छोड़ो मेरी ज़िन्दगी के
हर सफ़हे पे तेरे नाम का हिज्जे पड़ा है
असरारुल हक़ जीलानी
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