Saturday, 20 May 2017

ग़ज़ल / غزل

ग़ज़ल 

मैं  हिज्र  में कितना  इंसाफ़ कर  रहा हूँ
आजकल तेरी याद में एतकाफ़ कर रहा हूँ

भटक भटक  कर उसकी गलियों  में अब
मैं अपने  ख़ुदा का  तवाफ़  कर रहा  हूँ

इश्क़  में  ज़रूरी  है  तबाही  दिल  की
मैं दिल को जला कर सफ़्फ़ाफ़ कर रहा हूँ

जैसा  भी  हूँ  जो  भी  हूँ तेरा  बन्दा हूँ
मैं अपने  गुनाहों  का एतराफ़ कर रहा हूँ

मैं इज़हार ए इश्क़ का ताब कहाँ से लाऊं
अपने  फ़ैसले  पे लाम काफ़  कर रहा हूँ


غزل


میں  ہجر  میں  کتنا  انصاف  کر  رہا  ہوں
آج  کل  تیری  یاد میں اعتکاف  کر رہا  ہوں

بھٹک  بھٹک کر  اسکی   گلیوں  میں  اب
میں   اپنے  خدا  کا   طواف  کر  رہا  ہوں 

 عشق   میں ضروری  ہے  تباہی   دل  کی
میں  دل  کو  جلا  کر  سفّاف  کر رہا  ہوں

جیسا بھی ہوں  جو بھی ہوں  تیرا بندہ ہوں
میں  اپنے  گناہوں کا  اعتراف کر  رہا  ہوں

میں اظہار عشق  کا  تعب کہاں  سے لاؤں
اپنے   فیصلے  پہ  لام کاف   کر رہا  ہوں




Sunday, 16 April 2017

ग़ज़ल / غزل

ग़ज़ल

कहाँ हो मेरे यार दिल की आरज़ू सुनो
आओ  क़रीब  बैठो  मेरे  रूबरू सुनो

दर्द  बेपनाह में इश्क़  को क्यों  छोडू
जल  रही है आँख सदा ए धू धू सुनो

आतिश ए सोज़ ओ सितम से है दर्द स्याह
कहता  है तेरी आँखों  की  ख़ुशबू  सुनो

तेरी लहर ए तबस्सुम पे लिखा है मेरा नाम  
लब ओ रुखसार  की कभी  जुस्तजू  सुनो

किस  तरह स्याही में मेरा चाँद घुल रहा
मुझ  को  ही पुकारता है तेरी बाज़ू सुनो


غزل 

کہاں  ہو  میرے  یار دل  کی  آرزو  سنو
آؤ   قریب   بیٹھو   میرے  روبرو  سنو

درد  بےپناہ  میں  عشق  کو  کیوں  چھوڑوں
جل  رہی  ہے   آنکھ  صدا  دھو  دھو  سنو

آتش  سوز و  ستم سے  ہے  درد  سیاہ
کہتا  ہے  تیری  آنکھوں  کی  خوشبو  سنو

تیری  لہر  تبسّم  پی لکھا ہے  میرا  نام
لب  و  رخسار  کی  کبھی  جستجو  سنو

کس طرح  سیاہی  مے  میرا  چاند  گھل  رہا
مجھ  کو  ہی  پکارتا  ہے  تیری بازو  سنو

Wednesday, 22 March 2017

ग़ज़ल / غزل


غزل 

وہ میری جان ہو گئے  ہیں  کیا
جان  ایمان  ہو  گئے  ہیں  کیا

انکی  کوئی خبر کوئی پتا  نہیں
وہ  بدگمان  ہو  گئے  ہیں  کیا

میں نے انکو تو نہیں کہا  بے وفا
وہ   پریشان  ہو  گئے  ہیں  کیا

میرے اشعار  چھپ رہے ہیں ان سے
وہ  بے میان  ہو  گئے   ہیں  کیا  

ان سے ملنے  کی  تمنا  جل رہی
وہ  آسمان   ہو  گئے  ہیں  کیا 



ग़ज़ल 

वो  मेरी जान  हो गए  हैं क्या
जान  ईमान हो  गए हैं  क्या

उनकी कोई ख़बर कोई पता नहीं
वो बदगुमान हो  गए  हैं  क्या

मैंने उनको तो नहीं कहा बेवफ़ा
वो  परेशान  हो गए  हैं क्या

मेरे अशआर छिप रहे  हैं उनसे
वो  बेमियान हो  गए  हैं क्या

उनसे मिलने की तमन्ना जल रही
वो  आसमान हो  गए  हैं  क्या

Tuesday, 7 February 2017

जीवन और मृत्यू के मध्य


मैं मर गया हूँ और मुझे मरे पांच दिन हो गए हैं, मेरे शरीर को यहाँ सुनसान, अनजान सी जगह पर लाशों से निकल कर कुछ कीड़े खा रहे हैं मगर न भारतीय पुलिस का कोई पता है, न ही कोई समाज सेवक का | हो भी कैसे जब प्रलय का भयावह दृश्य आप की आँखों के सामने गुज़र रहा हो तो कौन देखता है दूसरों को, देश तो छोड़िए, धर्म तो छोड़िए, लोग अपने बीवी-बच्चे, माँ-बाप तक की ख़बर नहीं लेते | मैं ठहरा एक अजनबी इस शहर का और देश का एक असफल समाज सेवक जिसने इंजीनियरिंग करने के बाद समाज कार्य की पढ़ाई एक प्रसिद्ध संस्था से की और फिर समाज कार्य में लग गया लेकिन बहुत प्रयत्न के बावजूद भी लोगों को अपनी बात समझा न सका | अब या तो मैं नाकारा था जिसने कुछ लोगों को अपनी बात समझा नहीं पाया या ये जो पड़े हैं बेगुनाह से हज़ारों लाश बेवक़ूफ़ थे, निपट जाहिल; तो लोग मेरी लाश की तलाश में क्योंकर इधर आएँगे |

ये जो पड़े हैं मेरे बराबर में, पहचानते हैं आप ? सहगल साहब हैं .... जयंत कुमार सहगल, देश  के प्रसिद्ध एवंम प्रतिष्ठित सिविल इंजिनियर, जो मुझे ये समझाने आए थे कि मैं फालतू, बेतुकी और बेबुनियाद बातें अखबारों या किताबों में लिख कर जनता में अफवाह न फैलाऊँ और अब देखिये बेचारे उस सच्चाई की चोट खा कर इस तरह पड़े हैं कि आँखों में कीड़े घुस रहे हैं जिन को अब भगा भी नही सकते | और सुना है जनाब कि प्रोफेसर शबनम नाज़ भी न रहीं, बहुत ही दर्दनाक मौत हुई उनकी | खैर साहब ये तो होना ही था जब स्वयं ही परिणाम को जानती हों और कुछ पैसों की लालच, ओहदे और शोहरत की भूख की वजहकर उसे छिपाएंगे तो उसको एक दिन यथार्थ तो खाएगा ही | लेकिन मेरे दोस्त ये बड़ा बुरा हुआ कि जनाब रस्कीन झागर साहब को भी इस क़हर ने नहीं छोड़ा, बड़े फिकरमंद और अक़लमंद इंसान थे | अक्सर कहा करते थे बेटा जिस दिन इंसान अपने आस पास के पर्यावरण से ऐसा ही प्रेम करने लगे जैसा वो अपने बच्चों और सम्बन्धियों से करता है उस दिन से आपदाओं को शर्म आएगी आते हुए उस जगह और उन इंसानों पे | 

मुझे याद है जब 2015 में मुल्क के अक्सर उत्तरी राज्यों में भूकम्प का झटका शुरू हुआ जो तक़रीबन एक महीने तक अवाम को डर व खौफ़ के साए में रखा और मौत की गिनती 200 तक हो गई थी जो नेपाल के खौफ़नाक तबाही से कम तो थी मगर जनता, सरकार और प्रगतिशील व्यक्तियों को सोचने पे मजबूर कर दिया था कि आख़िर ऐसे प्राकृतिक आपदाओं से लड़ने के क्या उपाय हों ? उसी दौरान मैंने अपने शिक्षक एवंम समाज कार्यकर्ता रस्किन झागर साहब से एक सवाल किया था कि अगर ऐसे ही भूकम्प के झटके की वजह से टिहरी बाँध टूट जाए तो उसका परिणाम क्या होगा और ये निवेदन किया था कि सरकार और विकास परियोजना से जुड़े लोगों की एक बैठक करवाई जाए और ऐसे अगामी समस्या पे मंथन किया जाए | हम ने चार महीने की कठिन परिश्रम के बाद एक कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया जिसमें विभिन्न श्रोतों से पुख्ता तथ्य पेश किए और ये बताने का प्रयत्न किया कि अगर टिहरी बाँध टूट जाए है तो टिहरी से दिल्ली तक के सारे शहर और गाँव पानी में डूब जाएंगे इसलिए ये आवश्यक है कि कुछ एहतियाती क़दम उठाए जाएं इस से पहले कि ये घटना घटे | मगर हमारी बातों को अनसुना कर दिया गया और हमें दबाने का प्रयत्न किया गया | हमारे ऊपर ये इलज़ाम लगाया गया कि हम विकास में रोड़े अटका रहे हैं और शोहरत के भूखे हैं |

मैं आज सोचता हूँ तो पाता हूँ कि यही उनकी भूल थी | खैर हमने अपनी आवाज़ को पूरी तरह से दबने तो नहीं दिया मगर अपनी बात मनवाने में कामयाब नहीं हुआ और उसी का परिणाम है कि आपकी आँखों के सामने बच्चे, बूढ़े, मर्द, औरत सब पानी की बड़ी सी आँख में स्वयं तैर रहे हैं जिन्हें तैरना सिखाने की आवश्यकता नहीं पड़ी, स्वयं ही आधे घंटे पानी के अन्दर सिसकियाँ लेने के पश्चात सिख गए हैं | पैरों में फंसे चप्पल, खूंटे से बंधे जानवर, बदन से लिपटे कपड़े और दफ्तरों में क़ैद काग़ज़ात सारे आज़ाद हो गए हैं और ऐसे पानी पे बैठ कर भागे जा रहे हैं जैसे स्वामी उसे फिर से न पकड़ ले| टिहरी से दिल्ली तक की पूरी आबादी तबाह हो गई है सिर्फ़ एक भूकम्प के झटके से बाँध टूटी और फिर . . . . . . . . . बर्बादी . . . . सामने  . .है |

देखो मेरे कान में कोई कीड़ा घुसा जा रहा है...... बदबू भी कर रहा है.... कोई भगाओ इसे |

मैं देखता हूँ कि रेडियो, टेलीविज़न और फेसबुक पे लाशों ने टहलना शुरू कर दिया है | लोगों ने बेचना शुरू कर दिया है लाशों की जलावन, कुछ दफ्तरों में बैठे लोगों ने ख़रीद कर जलाना शुरू कर दिया है और नेताओं ने पकाना शुरू कर दिया है रोटी | अब बंटेगी रोटियाँ . . . . . . मेरे सामने भी पड़ी है, क्या उठा लूँ  . . . . . खा लूँ  . . .नहीं  . . . .  हाँ  . .  . नहींहींहीं  . .

ये कीड़े क्यों परेशान कर रहे हैं दूसरों की लाशों से मेरे शरीर पे क्यों आ रहे हैं . . . उफ्फ्फ़ काट लिया |

धराम  . . . . फ़ाइल गिरी | फ़ाइल गिरने की आवाज़ मेरे कानों में सूई की तरह चुभी और मेरी नींद टूट गई |

देखता हूँ कि मेरा दोस्त कोई फ़ाइल या किसी विशेष पुस्तक की तलाश में मेरे ही कक्ष में मेरी ही अलमारी में मग्न है और उसे ख़बर भी नहीं कि कोई फ़ाइल नाम की चीज़ अलमारी से उतर कर ज़मीन पे सर पटख चुकी है लेकिन एक मैं हूँ कि फ़ाइल गिरने की आवाज़ से एक दुनिया से दूसरी दुनिया में कूद आया | वैसे इस दर्दनाक सपने से बाहर लाने के लिए इस परेशान आत्मा का धन्यवाद तो करना चाहता था मगर सोचा रहने दो मग्न उसे उसके हाल पे कि शायद वो भी किसी सपने को कुरेद रहा हो जो कि ज़रूरी है मस्तिष्क में फँसे उलझनों को सुलझाने के लिए |


मुझे कॉन्फ्रेंस में जाना था इसलिए थोड़ी जल्दी की और तैयार हो कर रस्किन सर के कमरे में गया, सर को फैक्ट्स की फाइल दिया, कुछ वालंटियर को कार्यक्रम का विवरण दिया और कॉन्फ्रेंस हॉल में चला गया | ये 2015 का साल है, 2025 के खौफ़नाक तबाही को आने से पहले उसे ना आने देने पे बात करने का साल और उसी साल के एक अहम् दिन के लिए कॉन्फ्रेंस हॉल में बैठा हूँ जहाँ वही मरे हुए सहगल साहेब जिंदा मेरे बराबर में हैं, नाज़ साहिबा बड़े खुश व ख़ुर्रम बैठी किसी से बात कर रही है और रस्किन सर किसी सोच में कहीं गुम |  

( जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी के हिंदी यूनिट द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कृत कहानी | )   

Monday, 26 December 2016

राम राम जी


मुम्बई की शाख़ों से टूटा तो दिल्ली के पुराने दरख़्तों पे पनाह ली, मगर सर पे छत मिल जाना ही काफ़ी नहीं होता, गर्मी ने जब ख़्यालों को उबालना शुरू किया तो सुकून की तलाश में हिमालय की तराई में आकर क़याम किया, लेकिन ऐसा नहीं हुआ कि यहाँ आकर सुकून की तलाश ख़त्म हो गई हो, हाँ मगर उन झमेलों से दूर, कुछ बेहतर है  | नेपाल से नज़दीक मगर हिन्दुस्तान की सरज़मीन पे बसा है ये छोटा सा गाँव, जहाँ से कुछ दूरी पे श्रावस्ती है, वो जगह जहाँ महात्मा बुद्ध अपनी ज़िन्दगी के दो साल बिताए थे | गाँव की आबादी मिली जुली है, हिन्दू, मुस्लिम और बोद्ध, तीनों मज़हब के लोग एक ही हवा में साँस लेते हैं | अब तक हवा का बँटवारा तो नहीं हुआ है मगर ज़मीन थोड़ी बंटी हुई दिखी कि गाँव के जुनूब और मग़रिब जानिब मुस्लिम बसे हैं और बाक़ी के दो सिम्त में हिन्दू और बोद्ध रहते हैं लेकिन दरगाह पे आपको तिलक और टोपी वालों में फ़र्क़ नज़र नहीं आएगा | 
मैं गुप्ता जी के दालान पे बैठा खाने का इंतज़ार कर रहा था कि तभी एक नौजवान टोपी पहने, चेहरे पे हल्की हल्की दाढ़ी और घुटनों तक लम्बा कुरता पहने मेरे क़रीब आकर बोला “राम-राम जी” और गुप्ता जी के घर के अन्दर दाख़िल हो गया | मैंने जवाब में राम-राम बड़ी आसानी और ख़ुश मिज़ाजी से बोल तो दिया था मगर ज़हन से निकल कर अजीबों ग़रीब क़िस्म के सवालात दिमाग पे हमला करने लगे लेकिन मेरा दिमाग़ भी इतना कमज़ोर न था कि उन सवालों का बेहतर जवाब न दे सके और इस तरह दिमाग़ और ज़हन के बीच होने वाली जंग की बला टली | इस हमले से थोड़ा थका हुआ दिमाग़ खाने के बर्तन पे आकर आराम करने ही वाला था कि दालान से नजर आ रही सामने वाली दीवार पे लिखा एक जुमला “गो हत्यारों को फाँसी दो” ने फिर से जंग का बिगुल बजा दिया था | इस बार मेरा दिमाग़ थोड़ा कमज़ोर पड़ने लगा था कि वो नौजवान फिर से मेरे क़रीब आकार रुका, मुझ से मेरा नाम पूछा, नाम सुन कर उस ने माफ़ी की दरख्वास्त करते हुए सलाम किया | मैं सलाम का जवाब देते हुए कहा “राम राम कहो या रहीम रहीम, मेरे लिए दोनों बराबर है” | ये सुन कर उसने मेरा हाथ अपनों हाथों में लिया पहले दोनों आँखों से फिर होठों से चूमने लगा जिस से साफ पता चलता था की गाँव वाले पीर बाबा का मुरीद होगा |
मेरे क़रीब बैठा एक शख्स मेरी तरफ़ देखा अपनी एक अंगुली दिमाग़ तक ले जा कर कहा “ये थोड़ा खिसका हुआ है” |

इस की बात सुन कर और नौजवान की मुहब्बत को देखकर, मन ही मन ये सोचने लगा कि काश दुनिया का हर इंसान इस नौजवान की तरह खिसका होता तो बेहतर होता कि मज़हब के नाम पे कोई लड़ाई न हो |          

Monday, 19 December 2016

Curbing the space of dissent and debate in JNU



The idea and slogan of we dissent, we debate, we are JNU might vanish from the land of JNU and the extinction of the right to speech will in near future catch the fire. Sarcastically saying, nothing will happen but only the environment and culture will change as in other university antipathy, antagonism and regionalism prevail and never give a chance to dissent and debate on one plateform, except few. Here in JNU atleast student dissent and debate, listen and respect others’ voice, grant opportunity to speak up without considering their political or ideological affiliation. But the time has ping the mind of certain ideological group of students and administration to murder the soul of this culture and curb all the space to float only one tune of ideology.
Grilled space of freedom Square (picture source: http://images.indianexpress.com/2016/12/c1.jpg)

Recently JNU administration has issued a notice mentioning the prohibition of all forms of coercions such as gheraos, sit-in or any variation of the same and further notified that all forms of peaceful and democratic protest shall be conducted with restraints. This was just after grilling of the space of freedom square which were using by the student to discuss the issues, to held public meeting, to debate, dissent and protest but administration has curbed the space on the ground of space crunch. The administration has not only blocked the space but on the stair where students use to sit during talk, meeting or protest, ordered the gardeners to spread the flowerpot to restrict the student for sitting. To be a student of JNU, I never thought of such doltish action would be taken by the administration which has happened where we were stop to sit on the stair. The irony of the notice is, one coercive administration is asking coercively to the students not to indulge in coercive actions and even coercively notifying to conduct peaceful protest with restraints. The banning of students’ voices and exclusion of student representatives by the administrative has witnessed after the 9th February incident and it intensified after disappearance of Najeeb. The administration doesn’t feel the need to consult the students’ representatives or include them in administrative or academic decision where students’ voice should be raised. The administration has not concerned to include student union in orientation program, in jan jan jnu program and many such events where the student representatives should have present. In contrast of the inclusion of students’ voice, JNU administration is crushing the efforts of the student to avail justice and to raise their voice and curbing the space of protest.


Flowerpot on the stair (Picture Source:http://images.indianexpress.com/2016/12/pots.jpg)
Few months back Ganga dhaba was on the radar of the administration to eliminate the dhaba culture of the university where students use to sit and discuss and among few of the spaces where social interaction encounter between the students community. When students’ protested and registered their solidarity with Ganga dhaba with some other factors came into the scene, dhaba has not been harmed. But this time administration has forcefully taken away the space and swallowing the culture of dissent and debate. In result of these coercive action the campus will be polarized, the students will never get into flavor of political thought and the students politics will either became ultra coercive minded or right wing students politics will be nurtured by the administration which later became biased, one sided political activities without dissent and debate. Infact the right wing students group has very good rapport with the Vice Chancellor and administration is kind with the students except the student who has leftist ideology. The scene of the other side is also alarming for the leftist students where they themselves are dissenting over the decision for proper action against snatching of the space. The freedom square amid of these fights will lose their life and student community will lose a historical place and effective, significant and value given space. This space has uncovered their importance after administration has grilled the area where students use to sit, this indicates that the voices from the freedom square bother them even though unheard. The administration suggested the student community to protest at Kamal Complex market which is infact a place from where voices would never be heard. Need of the time is to bargain the administration for the grilled space, peaceful demand for unlock the space and ensure that the open space should not be curbed in future.

          

Wednesday, 31 August 2016

Ganga Dhaba Poem

तहज़ीब ज़िन्दा रखेंगे

हुक्म हुआ कि साहेब को चाय चाहिए
ज़रा सी देर पर साहेब को गुस्सा आया
फिर कुछ देर हो गई
साहेब का ग़ुस्सा दफ़्तर में घूमने लगा
जब कुछ देर और हो गई
तो ग़ुस्सा दफ़्तर से बाहर निकला
और टूट पड़ा सब के सर पर

साहेब को चाय की देरी पर इतना ग़ुस्सा
हमारे चाय के ढ़ाबे पर ख़तरा है
हम बग़ावत पर उतर आएँ तो कम है
हम सड़कों पे निकल आएँ तो कम है
हम तोड़ दें तुम्हारा निज़ाम तो कम है
ढ़ाबे के पत्थर से उठ जाए शोला तो कम है
नर्म सब्ज़ा से उठ जाए पत्थर तो कम है
ढाह दें तुम्हारी दीवारें तो कम है

इन्हीं पत्थरों पे बैठ कर हम
चाय की चुस्कियों पे हम
अमन से इंक़िलाब तक की बात करेंगे
रोक लो तुम, हम तहज़ीब जिंदा रखेंगे  



تہذیب زندہ رکھیںگے

حکم ہوا کہ صاحب کو چاۓ چاہئے
ذرا سی دیر پر صاحب کو غصّہ آیا
پھر کچھ دیر ہو گی
صاحب کا غصّہ دفتر میں گھومنے لگا
جب کچھ دیر اور ہو گی
تو غصّہ دفتر سے باہر نکلا
اور ٹوٹ پڑا سب کے سر پر

صاحب کو چاۓ کی دیری پر اتنا غصّہ
 ہمارے چاۓ کے ڈھابے پر خطرہ ہے
ہم بغاوت پہ اتر آیں تو کم ہے
ہم سڑکوں پہ نکل آیں تو کم ہے
ہم توڑ دیں تمہارا نظام تو کم ہے
ڈھابے کے پتھر سے اٹھ جاۓ شولہ تو کم ہے
نرم سبزہ سے اٹھ جاۓ پتھر تو کم ہے
ڈھا دیں تمہاری دیواریں تو کم ہے

انہیں پتھروں پہ بیٹھ کر ہم
چاۓ کی چسکیوں پہ ہم
امن سے انقلاب تک کی بات کرینگے
 روک لو تم، ہم تہذیب زندہ رکھیںگے




Friday, 22 July 2016

कहानी : देश द्रोह

देश द्रोह

गौ माता को बिजली के खम्भे से सर खुजलाते देख मेरा दोस्त मुझ से पूछा अरे इसे कहीं बिजली तो नहीं लग गई ?”
मैंने कहा अगर बिजली लगी तो समझ लो हिन्दुस्तान से बिजली को पकिस्तान भेज दिया जाएगा और जो बचेंगा उसे गले में रस्सी बाँध कर पेड़ से लटका दिया जाएगा इसलिए बिजली की हिम्मत नहीं है कि गौ माता को कुछ कर सके |
उसने फ़ौरन बात काटते हुए कहा और अगर बिजली सच में लग गई हो तो?”
तो समझ लो अगले ही पल हिंदुस्तान के हर चैनल पे ख़बर नसर होगी कि बिजली हिंदुस्तान का सब से बड़ा देश द्रोह, देखिए कैसे?’ और फिर बहस होगी, कुछ विडियो क्लिप देखाए जांएगे, कुछ व्हाट्सअप पे वायरल होगा, सियासत में हलचल होगी, नेताओं का उस जगह दौरा होगा, भीड़ को वो ख़िताब करेंगे और कहा जाएगा कि दोस्तों मुझे पता है ये किस की चाल है, आप मेरा साथ दीजिये हम दुश्मनों के ख़िलाफ़ जंग छेड़ेंगे, इस का बदला दुश्मनों और बिजली दोनों से ले कर रहेंगे......,  मैं कहते हुए थोड़ी देर साँस लेने के लिए अपनी बात को आधी अधूरी छोड़ कर एक लम्बी साँस ली और फिर बात को जारी रखा |
....और सब से पहले तो गौ रक्षक दल आएगी, जिसके आते ही पुलिस अपना बोरिया बिस्तर समेट कर दूर खड़ी जिप्सी में जा बैठेगी और वहीँ बैठे बैठे तमाशा देखेगी | इन सब बहस के बीच एक कमिटी का गठन होगा फिर आखिर में बिजली की सुप्रीम कोर्ट में पेशी होगी और फ़ैसला सुनाया जाएगा, जो मैं नहीं बताऊंगा वरना मेरी पेशी हो जाएगी कोर्ट में |”
इस बीच बात करते करते हम दोनों दोस्त उस बिजली के खम्भे के क़रीब पहुँच गए जहाँ गाय बिजली के खम्भे को छोड़ खम्भे को सहारा देने वाले तार से अपना सर खुजलाने लगी थी | ये देख मेरा दोस्त दौड़ कर गाय के क़रीब गया और उसे भगाने लगा ताकि ऐसे न हो कि बिजली का झटका लग जाए लेकिन हुआ कुछ और, गाय उल्टा उस पे दौड़ी और सर की खुजली उस को पटख कर उतार ली | चोट खाए, गुस्साए दोस्त ने बराबर में पड़े डंडे से गाय की धुनाई करनी शुरू कर दी, जब तक मैं उसे रोकता तब तक दो तीन डंडे बेचारी गाय को पड़ चुके थे | लेकिन अगले ही पल हम देखते हैं कि तीन चार नौजवान सर पे जय श्री राम का पट्टा बांधे, हाथ में डंडा लिए हमारी तरफ दौड़े आ रहे हैं, बस क्या था अब हमारी खैर न थी इसके सिवा के यहाँ से भाग निकलें, दोस्त का हाथ पकड़ा और भागना शुरू किया | पीछे पीछे गौरक्षक दल और आगे आगे हम दोनों ........ भागते रहे, भागते रहे... |

असरारुल हक़ जीलानी

3 जून 2016     

Monday, 27 June 2016

A complete package of culture and history with romance

A complete package of many love stories in one book, “Honour for a Ransom” has narrated not only soulful love stories in a poetic way but has given a glimpse of the culture and history of undivided India, divided India and England. Most of the story revolves around Kartar’s life but it also unfolds the other love stories which have heartbroken endings either because of the rigid caste system or partition of the country. 

There is no need to point out the quality and beauty of the language used and there is no doubt author has done justice with the regional language too. In fact it’s becoming a trend to Indianise English literature by using Indian words and phrases in between the dialogue, which is the demand of the readers as well as the characters and the same author has tried this method in this romantic piece of work.  Besides the language, the writing style is also up to the standard and the editor has done his job very wellwhich is evident in the book. 

The cover of the book which is quite attractive narrates the whole story without the reader having to turn the pages. The colour composition as well the design brilliantly portrays the story and creates a true perception in the reader’s mind.

Everything - the story, the language, and the writing style catches the attention but characters’ names are too confusing and a puzzle to resolve. Besides this, jumping between stories is an undesirable style of writing which diverts the readers and makes them think a lot to understand the story. 

The book not only narrates a tragic love story but with remarkable work of language, storing the culture and history too, is a good read to all kind of readers. 


Overall rating 4/5

Toward an Additional Social Order

This refers to the article, ‘of lions and dogs’ (IE, September 19). The author argued to inform misunderstood stand of Swami Vivekanand...