ग़ज़ल
हर ज़बां पे छा जाऊं और नाम भी न हो
ऐसा कोई काम करूँ कि आम भी न हो
ज़ालिम के पंख को पूरा आसमान दे दिया
परिंदों के पंख को एक शाम भी न हो
इतना नशा हो मेरी शिद्दत ए चाहत में
कि मैक़दे में बचा कोई जाम भी न हो
इतने खुदा हो गए हैं मेरे मुल्क में जैसे
मन्दिर में राम कोई काम भी न हो
माना असरार ए ग़ज़ल कोई काम का नहीं
तो क्या कुछ शेर यूँ बेकाम भी न हो