Monday, 23 February 2015

ग़ज़ल

                            ग़ज़ल 

संग ए अशआर मेरी चाहत मेरे क़लम से निकलेगी 
जो भी निकलेगी थम थम के  नज़म  से  निकलेगी 

तुम्हे  जितना  क़त्ल   करना   है   कर   लो   साक़ी 
ख़ून  मेरे  गले  से  नहीं  मेरे  क़लम  से  निकलेगी 

तूने   बहुत  लगाएं  हैं   ज़बाँ   पे   ताले   लगाओ  
मेरे  हुक़ूक़  की  आवाज़ मेरे  अलम  से निकलेगी 

मेरे   पैग़ाम   का  जवाब  न  दोगी  कब  तक  ये 
बेताब चाहत का रंज   दर्द ओ अलम से निकलेगी 

काट कर नज़्मों से किस तरह अलग कर दूँ उसको 
जो दिल ही से न निकले ख़ाक नज़्म से  निकलेगी 

चेहरा छुपा  के  भी  दिखा  के  भी  चलते  हैं  लोग 
वो जो हकीकत निकलेगी बड़ी शरम से निकलेगी 

हालत ए असरार    पुर-असरार  हो  गया  है  अब
ज़माने पे जो अफ़शाँ  होगी वो  नज़म  से निकलेगी  

असरारुल हक़ जीलानी

अल्फ़ाज़ के मायने :
अशआर- कविताएँ, शेर का बहुवचन,      नज़म (नज़्म)- कविता,     साक़ी- शराब पिलाने वाला/ वाली,   
अलम- 1. झंडा  2. दुःख , ग़म;     असरार- छुपी हुई बात, राज़ ;       अफ़शाँ - ज़ाहिर करना या होना 


Thursday, 12 February 2015

ज़मीन हूँ लफ़्ज़ों की

मेरी साँसें पकने लगीं हैं 
आह गिरने लगीं हैं कट के 
मोहब्बत के दरख़्त से 
राहतें झड़ने लगीं हैं मिट के 
सूखा जाता है ख़्वाब मेरा 
ये कौन सी चाहत की तपिश है 
जो झुलसा दिया है हर सब्ज़ा मेरा 

इश्क़ तो चखा भी नहीं था मैंने 
बस ख़्वाब देखा था 
और काट दी गई सारी डालियाँ 
चाँद तो अाया भी न था छत पे 
बस बुलाया था 
सूरज ने जला दिया आवाज़ मेरी 
उसकी साँस तक पहुँचने से पहले 
अभी तो पर भी न लगाया था मैं ने 
बस चाहा था कि गढ़ दुँगा 
चाँद तारे उसके लिए 
मगर किसी ने आसमाँ जला दिया 

कौशा 
कहाँ तक रखता छुपा कर तुम को 
ज़मीन हूँ लफ़्ज़ों की मैं  
बीज छुपाऊँगा 
पौदा तो निकलेगा ही 
सूखी जाती है हर शाख़ मेरी 
अब साँस दो कि ज़िंदा रहूँ 



Tuesday, 10 February 2015

कौशा !


कौशा !
जब मैं डायरी के कंधे पे सर रख के सो जाऊ 
और जब तुम देखो 
तो अपनी यादों को आँखों से चूमना 
फिर आहिस्तह से निकाल कर 
डायरी मेरे हाथ से 
रख देना मेरे मेज़ पे 
और उंगलियो में फंसी क़लम को 
मिन्नत से निकाल कर 
दिखा देना कुछ रंग अपने चेहरे का 
फिर रख देना उसी डायरी के बीच 
कि मुझे याद रहे लिखा था रात कुछ 
एक नज़र देखना मेरे सोए हुए चेहरे को 
और कुछ ख़्वाब छिड़क देना 
कुछ बांध देना मेरे पलकों पे 
कि जब भी जागूँ 
सब से पहले 
तेरे ख़्वाब को आज़ाद कर दूँ   

Toward an Additional Social Order

This refers to the article, ‘of lions and dogs’ (IE, September 19). The author argued to inform misunderstood stand of Swami Vivekanand...